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अप्र॑तीतो जयति॒ सं धना॑नि॒ प्रति॑जन्यान्यु॒त या सज॑न्या। अ॒व॒स्यवे॒ यो वरि॑वः कृ॒णोति॑ ब्र॒ह्मणे॒ राजा॒ तम॑वन्ति दे॒वाः ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apratīto jayati saṁ dhanāni pratijanyāny uta yā sajanyā | avasyave yo varivaḥ kṛṇoti brahmaṇe rājā tam avanti devāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप्र॑तिऽइतः। ज॒य॒ति॒। सम्। धना॑नि। प्रति॑ऽजन्यानि। उ॒त। या। सऽज॑न्या। अ॒व॒स्यवे॑। यः। वरि॑वः। कृ॒णोति॑। ब्र॒ह्मणे॑। राजा॑। तम्। अ॒व॒न्ति॒। दे॒वाः ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:50» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (अप्रतीतः) शत्रुओं से नहीं पराजित किया गया (राजा) राजा (अवस्यवे) रक्षा की इच्छा करते हुए (ब्रह्मणे) परमात्मा के लिये (वरिवः) सेवन को (कृणोति) करता है (तम्) उसकी (देवाः) विद्वान् जन (अवन्ति) रक्षा करते हैं और (या) जो (सजन्या) तुल्य उत्पन्न हुए पदार्थों के साथ वर्त्तमान (उत) भी (प्रतिजन्यानि) मनुष्य-मनुष्य के प्रति वर्त्तमान (धनानि) धन हैं उनको सहज स्वभाव से (सम्, जयति) अच्छे प्रकार जीतता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो राजा परमात्मा ही की उपासना करता और यथार्थवक्ता विद्वानों की सेवा करता है, वही नहीं नाश होनेवाले राज्य और धन को प्राप्त होकर सदा ही विजयी होता है ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽप्रतीतो राजा अवस्यवे ब्रह्मणे वरिवः कृणोति तं देवा अवन्ति या सजन्योत प्रतिजन्यानि धनानि सन्ति तानि सहजस्वभावेन सञ्जयति ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्रतीतः) शत्रुभिरपराजितः (जयति) (सम्) (धनानि) (प्रतिजन्यानि) जनं जनं प्रति योग्यानि (उत) (या) यानि (सजन्या) समानैर्जन्यैः सह वर्त्तमानानि (अवस्यवे) रक्षामिच्छवे (यः) (वरिवः) सेवनम् (कृणोति) (ब्रह्मणे) परमात्मने (राजा) (तम्) (अवन्ति) रक्षन्ति (देवाः) विद्वांसः ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यो राजा परमात्मानमेवोपास्त आप्तान् विदुषस्सेवते स एवाक्षतं राष्ट्रं धनं च प्राप्य सदैव विजयी जायते ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जो राजा परमेश्वराची उपासना करतो व आप्त विद्वानांची सेवा करतो त्याच्या राज्याचा नाश न होता धन प्राप्त होऊन तो विजयी होतो. ॥ ९ ॥